Shri Veer Bigga Ji |
घोडी जब अपने
मुंह में बिग्गा
जी का शीश
दबाए जाखड राज्य
की राजधानी रीडी़
पहुँची तो उस
घोडी को बिग्गा
जी की माता
सुल्तानी ने देख
लिया तथा घोड़ी
को अभिशाप दिया
कि जो घोड़ी
अपने मालिक सवार
का शीश कटवा
देती है तो
उसका मुंह नहीं
देखना चाहिए. कुदरत
का खेल कि
घोडी ने जब
यह बात सुनी
तो वह वापिस
दौड़ने लगी. पहरेदारों
ने दरवाजा बंद
कर दिया था
सो घोड़ी ने
छलांग लगाई तथा
किले की दीवार
को फांद लिया.
किले के बाहर
बनी खई में
उस घोड़ी के
मुंह से शहीद
बिग्गाजी का शीश
छुट गया. जहाँ
आज शीश मन्दिर
बना हुआ है.
जब घोड़ी शहीद बिग्गाजी
का शीश विहीन
धड़ ला रही
थी तो उस
समय जाखड़ की
राजधानी रीडी से
पांच कोस दूरी
पर थी. यह
स्थान रीडी से
उत्तर दिशा में
है. सारी गायें
बिदक गई. ग्वालों
ने गायों को
रोकने का प्रयास
किया तो उनमें
से एक गाय
घोड़ी से टकरा
गई तथा खून
का छींटा उछला.
उसी स्थान पर
एक गाँव बसाया
गया जिसका नाम
बिग्गा रखा गया.
यह गाँव आज
भी आबाद है
तथा इसमें अधिक
संख्या जाखड़ गोत्र के
जाटों की है.
यह गाँव राष्ट्रीय
राजमार्ग पर रतनगढ़
व डूंगर गढ़
के बीच आबाद
है. यहाँ पर
बीकानेर दिल्ली की रेलवे
लाइन का स्टेशन
भी है.
ऐसी लोक कथा है कि जहाँ पर बिग्गा जी की धड़ गिरी थी वहां पर एक सोने की मूर्ती अवतरित हुई. जब डाकू उसे निकालने लगे तो वह सोने की मूर्ती जमीन के अन्दर धसने लगी. डाकू निकालने का प्रयास करते रहे, इसी प्रयास के दौरान एक समय ऐसा आया कि ऊपर की मिटटी गिरी जिसके निचे वे डाकू दब कर मर गए. इसके पास एक पत्थर की मूर्ती विद्यमान है. इस मूर्ती में बिग्गाजी को घोड़ी पर सवार दिखाया गया है. इस स्थान पर एक बड़ा भारी मेला लगता है. जब यह ख़बर रानी हरियल ने सुनी तो वह भी अपने बछड़े सहित बिग्गाजी के साथ सती हो गई. आशोज शुक्ला त्रयोदशी को बिग्गाजी ने देवता होने का सबूत दिया था. वहां पर उनका चबूतरा बना हुआ है. उसी दिन से वहां पर पूजापाठ होने लगी. बिग्गाजी १३३६ में वीरगति को प्राप्त हुए थे.
ऐसी लोक कथा है कि जहाँ पर बिग्गा जी की धड़ गिरी थी वहां पर एक सोने की मूर्ती अवतरित हुई. जब डाकू उसे निकालने लगे तो वह सोने की मूर्ती जमीन के अन्दर धसने लगी. डाकू निकालने का प्रयास करते रहे, इसी प्रयास के दौरान एक समय ऐसा आया कि ऊपर की मिटटी गिरी जिसके निचे वे डाकू दब कर मर गए. इसके पास एक पत्थर की मूर्ती विद्यमान है. इस मूर्ती में बिग्गाजी को घोड़ी पर सवार दिखाया गया है. इस स्थान पर एक बड़ा भारी मेला लगता है. जब यह ख़बर रानी हरियल ने सुनी तो वह भी अपने बछड़े सहित बिग्गाजी के साथ सती हो गई. आशोज शुक्ला त्रयोदशी को बिग्गाजी ने देवता होने का सबूत दिया था. वहां पर उनका चबूतरा बना हुआ है. उसी दिन से वहां पर पूजापाठ होने लगी. बिग्गाजी १३३६ में वीरगति को प्राप्त हुए थे.
लोकदेवता बिग्गाजी
बिग्गा और उसके
आसपास के एरिया
में बिग्गा गोरक्षक
लोकदेवता के रूप
में पूजे जाते
हैं. शूरवीर बिग्गाजी
जाखड़ जांगल प्रदेश
में, जो वर्तमान
बीकानेर, चुरू, गंगानगर और
हनुमानगढ़ में फैला
हुआ है, थली
क्षेत्र के लोकदेवता
माने जाते हैं.
इनका परमधाम डूंगरगढ़
से १२ किमी
दूर पूर्व में
बिग्गा ग्राम की रोही
में है.बिग्गाजी
के चमत्कार की
कई लोक कथाएँ
प्रचलित हैं. एक
बार वहां के
एक आदमी हेमराज
कुँआ खोदते समय
३०० फ़ुट गहरी
मिटटी में दब
गए. लोगों ने
उसे मृत समझ
कर छोड़ दिया.
कई दिनों के
बाद वहां पर
लोगों को नगाडा
बजता सुनाई दिया.
जब लोगों ने
थोड़ी सी मिटटी
खोदी तो हेमराज
जीवित मिला. उसने
बताया कि बिग्गाजी
उसे अन्न-पानी
देते थे. वह
नगाड़ा उसने बिग्गाजी
के मन्दिर में
चढ़ा दिया. मन्दिर
में पूजा करते
समय कई बार
घोड़ी की थापें
सुनाई देती हैं.
लोगों में मान्यता है कि गायों में किसी प्रकार की बीमारी होने पर बिग्गाजी के नाम की मोली गाय के गले में बांधने से सभी रोग ठीक हो जाते हैं. बिग्गाजी के उपासक त्रयोदसी को घी बिलोवना नहीं करते हैं तथा उस दिन जागरण करते हैं और बिग्गाजी के गीत गाते हैं. इसकी याद में भादवा सुदी १३ को ग्राम बिग्गा व रिड़ी में स्थापित बिग्गाजी के मंदिरों में मेले भरते हैं जहाँ हरियाणा, गंगानगर तथा अन्य विभिन्न स्थानों से आए भक्तों द्वारा सृद्धा के साथ बिग्गाजी की पूजा की जाती है.
Sलोगों में मान्यता है कि गायों में किसी प्रकार की बीमारी होने पर बिग्गाजी के नाम की मोली गाय के गले में बांधने से सभी रोग ठीक हो जाते हैं. बिग्गाजी के उपासक त्रयोदसी को घी बिलोवना नहीं करते हैं तथा उस दिन जागरण करते हैं और बिग्गाजी के गीत गाते हैं. इसकी याद में भादवा सुदी १३ को ग्राम बिग्गा व रिड़ी में स्थापित बिग्गाजी के मंदिरों में मेले भरते हैं जहाँ हरियाणा, गंगानगर तथा अन्य विभिन्न स्थानों से आए भक्तों द्वारा सृद्धा के साथ बिग्गाजी की पूजा की जाती है.
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