Saturday, October 27, 2012

Shri Veer Bigga Ji maharaj Ki Jiwani part- 2

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Shri Veer Bigga Ji 
घोडी जब अपने मुंह में बिग्गा जी का शीश दबाए जाखड राज्य की राजधानी रीडी़ पहुँची तो उस घोडी को बिग्गा जी की माता सुल्तानी ने देख लिया तथा घोड़ी को अभिशाप दिया कि जो घोड़ी अपने मालिक सवार का शीश कटवा देती है तो उसका मुंह नहीं देखना चाहिए. कुदरत का खेल कि घोडी ने जब यह बात सुनी तो वह वापिस दौड़ने लगी. पहरेदारों ने दरवाजा बंद कर दिया था सो घोड़ी ने छलांग लगाई तथा किले की दीवार को फांद लिया. किले के बाहर बनी खई में उस घोड़ी के मुंह से शहीद बिग्गाजी का शीश छुट गया. जहाँ आज शीश मन्दिर बना हुआ है.
जब घोड़ी शहीद बिग्गाजी का शीश विहीन धड़ ला रही थी तो उस समय जाखड़ की राजधानी रीडी से पांच कोस दूरी पर थी. यह स्थान रीडी से उत्तर दिशा में है. सारी गायें बिदक गई. ग्वालों ने गायों को रोकने का प्रयास किया तो उनमें से एक गाय घोड़ी से टकरा गई तथा खून का छींटा उछला. उसी स्थान पर एक गाँव बसाया गया जिसका नाम बिग्गा रखा गया. यह गाँव आज भी आबाद है तथा इसमें अधिक संख्या जाखड़ गोत्र के जाटों की है. यह गाँव राष्ट्रीय राजमार्ग पर रतनगढ़ डूंगर गढ़ के बीच आबाद है. यहाँ पर बीकानेर दिल्ली की रेलवे लाइन का स्टेशन भी है.

ऐसी लोक कथा है कि जहाँ पर बिग्गा जी की धड़ गिरी थी वहां पर एक सोने की मूर्ती अवतरित हुई. जब डाकू उसे निकालने लगे तो वह सोने की मूर्ती जमीन के अन्दर धसने लगी. डाकू निकालने का प्रयास करते रहे, इसी प्रयास के दौरान एक समय ऐसा आया कि ऊपर की मिटटी गिरी जिसके निचे वे डाकू दब कर मर गए. इसके पास एक पत्थर की मूर्ती विद्यमान है. इस मूर्ती में बिग्गाजी को घोड़ी पर सवार दिखाया गया है. इस स्थान पर एक बड़ा भारी मेला लगता है. जब यह ख़बर रानी हरियल ने सुनी तो वह भी अपने बछड़े सहित बिग्गाजी के साथ सती हो गई. आशोज शुक्ला त्रयोदशी को बिग्गाजी ने देवता होने का सबूत दिया था. वहां पर उनका चबूतरा बना हुआ है. उसी दिन से वहां पर पूजापाठ होने लगी. बिग्गाजी १३३६ में वीरगति को प्राप्त हुए थे.
लोकदेवता बिग्गाजी
बिग्गा और उसके आसपास के एरिया में बिग्गा गोरक्षक लोकदेवता के रूप में पूजे जाते हैं. शूरवीर बिग्गाजी जाखड़ जांगल प्रदेश में, जो वर्तमान बीकानेर, चुरू, गंगानगर और हनुमानगढ़ में फैला हुआ है, थली क्षेत्र के लोकदेवता माने जाते हैं. इनका परमधाम डूंगरगढ़ से १२ किमी दूर पूर्व में बिग्गा ग्राम की रोही में है.बिग्गाजी के चमत्कार की कई लोक कथाएँ प्रचलित हैं. एक बार वहां के एक आदमी हेमराज कुँआ खोदते समय ३०० फ़ुट गहरी मिटटी में दब गए. लोगों ने उसे मृत समझ कर छोड़ दिया. कई दिनों के बाद वहां पर लोगों को नगाडा बजता सुनाई दिया. जब लोगों ने थोड़ी सी मिटटी खोदी तो हेमराज जीवित मिला. उसने बताया कि बिग्गाजी उसे अन्न-पानी देते थे. वह नगाड़ा उसने बिग्गाजी के मन्दिर में चढ़ा दिया. मन्दिर में पूजा करते समय कई बार घोड़ी की थापें सुनाई देती हैं.

लोगों में मान्यता है कि गायों में किसी प्रकार की बीमारी होने पर बिग्गाजी के नाम की मोली गाय के गले में बांधने से सभी रोग ठीक हो जाते हैं. बिग्गाजी के उपासक त्रयोदसी को घी बिलोवना नहीं करते हैं तथा उस दिन जागरण करते हैं और बिग्गाजी के गीत गाते हैं. इसकी याद में भादवा सुदी १३ को ग्राम बिग्गा रिड़ी में स्थापित बिग्गाजी के मंदिरों में मेले भरते हैं जहाँ हरियाणा, गंगानगर तथा अन्य विभिन्न स्थानों से आए भक्तों द्वारा सृद्धा के साथ बिग्गाजी की पूजा की जाती है.
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Shri Veer Bigga ji Maharaj ki Jiwani - part - 1

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Shri Veer Bigga ji Maharaj
राजस्थान के वर्तमान चुरू जिले में स्थित गाँव बिग्गा रिड़ी में जाखड़ जाटों का भोमिचारा था और लंबे समय तक जाखड़ों का इन पर अधिकार बना रहा. बिग्गाजी का जन्म विक्रम संवत 1358 (1301) में रिड़ी में हुआ रहा. इनका गोत्र पुरुवंशी है. इस गोत्र के बड़े बड़े जत्थे दिग्विजय के लिए विदेश में गए बताये जाते हैं. ये वापिस अपनी जन्म स्थली भारतवर्ष लौट आए. इनके पिताजी का नाम राव महेंद्र जी (राव महुण जी) तथा दादा जी का नाम महाराजा लक्ष्मन सिंह चुहड़ जी था. गोदारा की पुत्री सुलतानी इनकी माता जी थी.

बिग्गाजी जब थोड़ेबड़े हुए तो इनको धनुष विद्या तथा अस्त्र-शस्त्र चलाने का प्रशिक्षण दिया गया. जब वे युवा हुए तो उन्हें विशेष युद्ध लड़ने की शिक्षा दी गई. उस युग में गायों को पवित्र और पूजनीय माना जाता था. उस समय में गायों को चराना और उनकी रक्षा करना क्षत्रियों का धर्म और प्रतिष्टा मानी जाती थी.

युवा होने पर उनकी शादी अमरसर के चौधरी खुशल सिंह सिनसिनवार की पुत्री राजकंवर के साथ हुई. इनकी दूसरी शादी मालसर के खिदाजी मील की पुत्री मीरा के साथ हुई. ये दोनों तरुनीय बड़ी सुंदर , सुडौल एवं अत्यन्त शील थी. इनके घर चार पुत्र रत्न तथा एक पुत्री का जन्म हुआ. इनके पुत्रों के नाम कुंवर आलजी, कुंवर जालजी, कुंवर बहालजी कुंवर हंसराव जी थे. पुत्री का नाम हरियल था.

बिग्गाजी ने १३३६ में गायों की डाकुओं से रक्षा करने में अपने प्राण दांव पर लगा दिये थे. ऐसी लोक कथा प्रचलित है कि बिग्गाजी १३३६ में अपनी ससुराल में साले की शादी में गए हुए थे. रात्रि विश्राम के बाद सुबह खाने के समय मिश्रा ब्राहमणों की कुछ औरतें आई और बिग्गाजी से सहायता की गुहार की. बिग्गाजी ने कहा "धर्म रक्षक क्षत्रियों को नारी के आंसू देखने की आदत नहीं है. आप अपनी समस्या बताइए." मिश्रा ब्राहमणियों ने अपना दुखड़ा सुनाया कि यहाँ के राठ मुसलामानों ने हमारी सारी गायों को छीन लिया है. वे उनको लेकर जंगल की और गए हैं. कृपा करके हमारी गायों को छुड़ाओ. वहीं से बिग्गाजी अपने लश्कर के साथ गायों को छुडाने के लिए चल पड़े. मालसर से ३५ कोस दूर जेतारण में बिग्गाजी का राठों से मुकाबला हुआ. लुटेरे संख्या में कहीं अधिक थे. दोनों में घोर युद्ध हुआ. काफी संख्या में राठों के सर काट दिए गए. वहां पर इतना रक्त बहा कि धरती खून से लाल हो गई. जब लगभग सभी गायों को वापिस चलाने का काम पूरा होने ही वाला था कि एक राठ ने धोके से आकर पीछे से बिग्गाजी का सर धड़ से अलग कर दिया.

ऐसी लोक कथा प्रचलित है कि सर के धड़ से अलग होने के बाद भी धड़ अपना काम करती रही. दोनों बाजुओं से उसी प्रकार हथियार चलते रहे जैसे जीवित के चलते हैं. सब राठों को मार कर बिग्गाजी की शीश विहीन देह ने असीम वेग से ताकत के साथ शस्त्र साफ़ किए. सर विहीन देह के आदेश से गायें और घोड़ी वापिस अपने मूल स्थान की और चल पड़े. शहीद बिग्गा जी ने गायों को अपने ससुराल पहुँचा दिया तथा फ़िर घोडी बिग्गाजी का शीश लेकर जाखड राज्य की और चल पड़ी.
 

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